जाने किस जंग की सिपाही
जाने किस जंग की सिपाही
एक अल्हड़ नादान सी लड़की,
थोड़ी हैरान थोड़ी परेशान सी लड़की ।
जो नहीं जानती है सही से
अपनी साड़ी की प्लेटोंं को सहेजना।
वो लड़की घर की दहलीज पर
मंगल कलश से अक्षत को बिखराते ही।
जुट जाती है बहुत सी नामालूम,
मुश्किलों को सुलझाने मे ,
जो नहीं जानती है ठीक से अभी खाना बनाना|
पर आज सबको ख़ुश करने के लिऐ ,
मटर मशरूम बनाती है।
जो गिनती थी कभी बारिश की बूँदेंं।
वो करने लगती है कोशिश अब ,
सासू माँ के माथे पर आयी अनगिनत सिलवटोंं को गिनने की।
और साथ साथ ही वो करती है कोशिश
अपने पिता समान ससुर के नज़रों मे चढ़ने की ,
ख़ुद से वो हर कोशिश करना चाहती है ,
नन्द को बहन और देवर को भाई बनाना चाहती हैं ।
पर एक सच तो यह भी है ना
ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती ।
वो दो क़दम आगे बढ़ाती हैं ।
पर फिर चार क़दम पीछे कर दी जाती है ।।
रोज़ किसी ना किसी बात पर
दहेज ना लाने का ताना सुनती जाती है।।
छोटी से छोटी गलती पर बहुत सारी गालियाँ
कानों में ज़हर उगलती जाती हैं ।।
फ़ँस जाती है एक चक्रव्यूह में अभिमन्यु की तरह ,
कोशिश करने पर भी बाहर नहीं आ पाती है।
माँ ने कहा था विदा करते वक़्त ,
डोली में जाती लड़की फिर ससुराल से,
अरर्थी पर ही वापस आती है।
जाने किस जंग की सिपाही है।
कभी समझ ही नहीं पाती है।।
रोज़ ख़ुद से लड़ती है एक जंग
और फिर ख़ुद से ही हार जाती हैं ।।
अपने आप को पूरी तरह मार कर भी ,
वो बुरी बहू का खिताब पाती है।
फिर लोग आपस में कहते है ,
जाने क्यों बहू बेटी नहीं बन पाती हैं।
नेहा अग्रवाल " नि:शब्द "