आह् नदी की
आह् नदी की
एक ज़माने मैं बहती थी,
मीलों तक भागा करती थी,
राहों में मनचलो से लड़ती,
जीत मेरी होती थी।
ऊँचे रथ से लगा छलाँग,
जब भू-तल को आती थी,
मेरी चंचल हसी जवान,
माटी तितर-बितर हो जाती थी।
गर्मी हो या शीत बरसात,
हर पल गाना गाती थी,
बिना थके बिना डरे,
बिना रूके मंज़िल पाती थी,
अब घिर आई काली रात,
धड़कन की चाल सुनाती हूँ,
बुझ गया यौवन का दीपक,
खुद की प्यास मिटाती हूँ।