मजबूर मजदूर की आह...
मजबूर मजदूर की आह...
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तुम्हें लगा कि दुर्घटना में कुछ मजदूर मरे थे,
जाने कितनी राखी और सिंदूर मरे थे।
पेट पालने की जल्दी में नाम कमाना भूल गए थे,
समाचारों की सुर्खियों में होकर मशहूर मरे थे।
कानों में घरवालों की आह सुनाई देती थी,
जिम्मेदारी के बोझ से होकर चकनाचूर मरे थे।
बच्चों की खामोश निगाहों में उनकी ख़्वाहिशों को पढ़कर
कतरा कतरा रोज मरे थे, लेकिन भरपूर मरे थे।
आँखें रस्ता देख रही थी, कई महीने बीत चुके थे
शायद घर भी न पहुँचे, घर से इतनी दूर मरे थे।