मनुष्यता खो रही है !
मनुष्यता खो रही है !
आधुनिकता के निरंतर कृष्ण प्रवाह में,
कण-कण गंगा मैया मैली हो रही है,
क्षण-क्षण प्रकृति विहल रो रही है,
रे मन ! आज फिर, मनुष्यता खो रही हैI
चारों तरफ शोर है; राहें सभी अंधी है,
'बाहर कुछ भीतर कुछ' मृत जीवन है ,
जन-जन की आत्मा अंतिम साँस ले रही है,
रे मन ! आज फिर, मनुष्यता खो रही हैI
इन जंगलों में अजगरों का काला साया है,
आहट सुन कँपकँपाती कोमल काया है,
पग-पग पशुता नग्न खेल, खेल रही है;
रे मन ! आज फिर, मनुष्यता खो रही हैI
दानव बन मानव घोटे खुद का गला है,
क्या नीति ? क्या अनीति ? बुने कैसा यह जाला है,
घर-घर काली छाया काले बीज बो रही है;
रे मन ! आज फिर, मनुष्यता खो रही हैI
पशु और मनुष्य का एक हो रहा चेहरा है,
मनुजता के गहनों को हमने जो तोड़ा है,
पल-पल मानवता सिसकियाँ ले रही है;
रे मन ! आज फिर, मनुष्यता खो रही हैI।
रचना वर्ष:२०१३