कोल्हू का बैल
कोल्हू का बैल
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कोल्हू के बैल सा
दिन -रात चलता है
चूल्हा पडा है ठंडा
खुद सुलगता है
'फांको 'की आ गयी नौवत
बंद हैं 'चखिया' के पट!
रात -दिन गेहूँ सा
खुद ही पिसता है
ओढकर चेहरे पर
कागजी हँसी
अन्दर है अरमानो की
होली जली
दुनिया के रूठने से डरता है
दुख -सुख के बीच की
कड़ी बन
बीच में ही डोलता है
कोल्हू के बैल सा
दिन रात चलता है!