विराट
विराट
विराट से उतरता है प्रेम
या यूँ कहूँ कि विराट ही प्रेम में बसता है
या प्रेम से ही विराट का जन्म है !
सूरज से धरती की ओर गिरती है धूप
धूप नहीं गिरती वो बल्कि प्रेम गिरता है
चंद्रमा से झरती है शीतलता
शीतलता नहीं झरती, प्रेम झरता है वह
आसमान में बहती है हवा
हवा नहीं बहती, प्रेम बहता है वो
हमारे चारों तरफ छाया हुआ है
प्रेम हम जान ही नहीं पाते मगर
कैसे हमारी नाभि से
समूचे नभ तक बिखरा हुआ है प्रेम
बस कि हमें पता ही नहीं कि
कहाँ से कहाँ तक है प्रेम
और कहां तक जाता है प्रेम !!
प्रेम एक बिंदु है
प्रेम असीम है, प्रेम निस्सीम है
बादलों सा गरजता है प्रेम
लहरों-सा चिहुंकता है प्रेम
झरनों सा गिरता है प्रेम
चिड़ियों में चहचहाता है प्रेम
केवल इस धरती पर के असंख्य प्राणियों में
असंख्य तरीकों से दृष्टिगोचर हो रहा है प्रेम
सिर्फ और सिर्फ़ प्रेम दृश्य भी प्रेम-अदृश्य भी प्रेम
घृणा भी प्रेम, गुस्सा भी प्रेम
और बाकी प्रेम तो खैर प्रेम है ही !
अँधेरा भी है प्रेम
उजाला भी है प्रेम
उठना भी है प्रेम, गिरना भी प्रेम
शांत चित्तता भी प्रेम, उन्मुक्तता भी प्रेम
वात्सल्य भी प्रेम, उत्तेजना भी प्रेम
निहारना भी प्रेम, सम्भोग भी प्रेम
वृक्षों का खिलना भी प्रेम
खेतों की फसल भी प्रेम
सीने का उठान भी प्रेम
मन का मौन भी प्रेम
प्रेम एक स्थिति भर नहीं है
यह समूची अवस्थिति है प्रेम
प्रेम से ही जन्म रहा है सब कुछ
और प्रेम में ही हो रहा विलोप भी
समय भी प्रेम, काल भी प्रेम
ईश्वर भी प्रेम, अनीश्वर भी प्रेम
विराट से नहीं उतरता प्रेम
प्रेम स्वयं ही विराट है पूरा संपूर्ण
और वो ही प्रेम हमारे भीतर
कितने विराट हैं हम !!
क्षुद्रताओं में डूबे हम सबको
अपना ही विराट स्वरूप नहीं दिखता
ईश्वर का अंश तिरोहित होकर
एक महाशून्य को प्राप्त है हममें
किसी सुगन्ध की तलाश में व्याकुल
हम कस्तूरी से फिरते बावले से
जन्मान्तर की सैर करते हम अभागे !!