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मेरी आँखें एक शहर देख रही थी

मेरी आँखें एक शहर देख रही थी

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हवा को चीरते आगे बढ़ती मेट्रो की रफ़्तार से 

ताल मिला कर भाग रही थी मेरी सोच,

पटरियों पर भागते हुए जिन्दगियाँ

मेट्रो में बैठते ही कुछ क्षण उल्लास से मन भर जाती

एक सकून सी, ठंडी सी सांस को अंदर लेते हुए

मैं भी सब के साथ मेट्रो में सफ़र कर रही थी।

 

हर एक चेहरे पर एक अलग सी ख़ुशी,

कुछ नयापन कुछ नए एहसास से भरी

मैं एक ही नज़र में सब के दिल को पढ़ने की कोशिश की,

कोई एक अजूबे की तरह ताक रहा था 

स्क्रीन पर मेट्रो की स्पीड से भागते हुए अक्षरें

एक के बाद एक स्टेशनों से गुज़रते हुए

उसकी खुलते बंद होते दरवाज़े-

हर पल बदलते चेहरे

किसीकी पहली बार मेट्रो में सैर करने की ख़ुशी

तो कई रोज़ मर्रा ज़िंदगी में 

नौकरी के ख़ातिर आते जाते लोगों के भीड़

कोई गाँव के अनपढ़ ठहाके मारते मज़े लेता

कोई शिक्षित गंभीर, शांत मौन सी हाथ में पेपर लिए -

मेट्रो के अंदर एक शहर ही तो देख रही थी मैं।

 

लोगों का शहर के सौंदर्य को निहारना

बच्चों की मंद मंद मुस्कान

रंग, रूप अलग जात, पात, धर्म के लोग

हर स्टेशन की जानकारी देती वह मधुर आवाज़

कानों में जैसे मिश्री घोल रही थी।

 

हर बार एक नया मोड़, एक नयी राह, 

एक नया मंजिल, नए चेहरे, नए लोग,

बिलकुल ज़िंदगी के अनजान राहों के तरह 

गतिशील मेट्रो, कभी न खत्म होने वाली सफ़र।


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