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घड़ी

घड़ी

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रात के सन्नाटे में कानों को  दी कुछ आवाज सुनाई,
जब देखा आसपास तो घड़ी ने थी आवाज लगाई।

टिक टिक करके जैसे कुछ कहने को मचल रही थी,
कहा मेरे पूर्वज याद आते है हम बस समय बताते हैं।

सूरज,तारे और चंद्रमा ने भी था मेरा फर्ज निभाया,
उस समय को दिन, दोपहर और रात था बताया।

फिर एक रोज एक मोमबत्ती का वक्त निकला था,
कुछ पिघलती चिन्ह से समय का पता चलता था।

वक्त बीतता गया और लोगों ने फिर रेत को पकड़ा,
समयसूचक बताते हुए रेत को तब यंत्र में जकड़ा।

और जाने कई अविष्कार हुए समय को दर्शाने का,
काम तो मेरा आज भी है लोगों को आजमाने का।

मैं भी उन्ही कई रूप में से एक निकालकर आया,
और लोगो ने मुझे फिर दिवार पर है लटकाया।

होना है तूझे कामयाब तो सुन मेरी एक ही बात,
कुछ भी हो जिंदगी में चलता रह समय के साथ।

अंत में कहा घड़ी ने, सोजा तू भी सुबह जगना है,
उठकर तुझे आखिर मेरी ही रफ्तार से चलना है।

 

 

 

 

 


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