क़यामत
क़यामत
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किसी को चाह कर इल्ज़ाम लेना बुतपरस्ती का
इबादत वो न समझेंगे, अदावत हम न समझेंगे।
बदन को सर्द कर देगा ये ग़म आहिस्ता-आहिस्ता
हिफाज़त वो न समझेंगे, हिदायत हम न समझेंगे।
असर रहता हमेशा देख लेते इक नज़र उन को
इनायत वो न समझेंगे, शिकायत हम न समझेंगे।
ख़ुदा के सामने होगा कोई जो फैसला होगा
अदालत वो न समझेंगे, वकालत हम न समझेंगे।
किसी के चाहने से क्यूँ बदल लें अपनी फितरत को
ज़ियारत वो न समझेंगे, तिज़ारत हम न समझेंगे।