पापा...
पापा...
सोचा लिख दूँ आप पर आज कुछ पंक्तियाँँ,
लिख दूँ,
हर एक वो बात जो मनस पटल पर अंकित है।
मगर ये क्या !
इस नासमझ के समझ ही नही आता,
आरम्भ करूंं कहाँँ से
वो गोद मे झुलाना लिखूंं
कंधो पर स्वर्ग भ्रमण लिखूंं
वो बाँहो का सुरक्षा कवच
या अपनत्व की फटकार लिखूं
बरसो पहनना पुरानी पोशाकें
और मुझे हर त्योहार
राजकुमार बनाना लिखूं
मेरा भविष्य सँवारने को
खुद का वर्तमान कुर्बान लिखूंं
वो अथाह प्रेम
माथे की सिलवटे लिखूं
खुद का पेट काटकर
भरा जो पेट मेरा लिखूं
कम पड़ गए आज अल्फाज़ पापा...
लिख दूँ
खून की स्याही से आपका नाम पन्नो पर,
मगर देखी जो एक बूंद मेरे खून की तो
आपकी तड़प किन लफ्ज़ों में लिखूं
पापा...
देखा नही है परमात्मा को साक्षात कभी
तो आपके साये में उस भगवान का प्रतिरूप लिखूंं
अधूरा हूँ बिन आपके
दिल का यही अरमान लिखूं
लिख दूँ सारे जहाँँ की खुशियां
नाम आपके पापा,
चरणों मे खुद का जीवन लिखूंं
आपका सिर पर हाथ रहे सदा
बस यही अरमान लिखूंं...।