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होली मेरी भी !

होली मेरी भी !

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लिपटी आ रही हूँ मैं जिस रंग में ;

सजे हो तुम भी आज उस बेरंग में ;

तुम तो खिल जाओगे ख़ुशियों के संग में ;

फ़ीकी मैं रह जाऊँगी इस सादे बदन में ;

इन ख़ुशियों से रँगना चाहूँ मैं भी अपनी चोली ;

दिल खोल के मुझे भी खेलनी है ये होली ।

 

देखूँ आइने में तो लगूँ मैं भी आज तुम सा ;

फिर क्यों है ये धुन मेरे कानों से गुम सा ;

खिलखिलाता ये चेहरा लगे बड़ा ही मासूम सा ;

बस माथे पे नहीं है वो रंग जैसे कुमकुम सा ;

रंगों की बौछार से भरना चाहूँ मैं अपनी झोली ;

दिल खोल के मुझे भी खेलनी है ये होली ।

 

रिवाजों की बेड़ियों से आज बँधी हूँ मैं ;

परमपराओं की जेल में, एक क़ैदी हूँ मैं ;

आज भी दिल में धड़कती एक ज़िंदगी हूँ मैं ;

इन ख़ुशनुमा फिज़ाओं में घुली ताज़गी हूँ मैं ;

ख़ुशियों से सजाना चाहूँ मैं भी अपनी डोली ;

दिल खोल के मुझे भी खेलनी है ये होली ।

 

 


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