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सफेद-स्याह

सफेद-स्याह

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रात के बारह बजे हैं

मैं जागा, बाकी सब सोए हैं

 

मेरे कमरे में झक्क सफेद उजाला है

बाकी जगह अँधेरा कुच-कुच काला है

 

बत्ती बुझाते ही मेरे सहित पूरा घर

चुपचाप अँधेरे में डूब गया है

मानो उजाले से ऊब गया है

 

इस कमरे से, उस कमरे में

जहाँ मेरा बिस्तर है

अब नहीं कोई अंतर है

 

घुप्प अँधेरे में कुछ देर

कुछ सूझता नहीं

यानी उजाले के अभ्यास के कारण

आँखों को अँधेरा दिखता नहीं

 

पर अब अँधेरा उजाले में बदलने लगा है

आँखों का अंधापन गलने लगा है

 

अब उस कमरे से

इस कमरे में हूँ

अपने बिस्तर पर हूँ

 

आँख मेरी और

खिड़की कमरे की खुली हुई है

बाहर की रौशनी इसमें घुली हुई है

 

इस कमरे में अब थोड़ा उजाला है

उस कमरे में भी अब

अँधेरा कम काला-काला है

 

वही संसार जो

जो खूब देखा-भाला है

बग़ैर उजाला

 

कितना कम जाना-भाला है!


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