अब तानाशाही उभर रही है
अब तानाशाही उभर रही है
यह कैसा विकास तुम्हारा ?
कहाँ की सीनाजोरी है ?
बंद करो यह नौटंकी तुम्हारी,
बंद करो अपनी तानाशाही !
रोटी कपड़ा, मकान का ठिकाना नहीं,
हमें मेट्रो रेल चलाना है,
महंगाई सर चढ़ के बोल रही है,
जनता सबकुछ जानती है !
अमीरी-गरीबी का फासला,
दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है,
अब जिंदगी एक उलझन बन गई है,
चारों तरफ टेन्शन ही टेन्शन !
नेताओं की तू-तू मैं-मैं, और लंबे-लंबे,
खोखले वादे वाले भाषण सिर्फ सुनो,
समझ में नहीं आ रहा है कि,
सचमुच कौन है राजभोज और कौन है फकीर !
अरे कुछ तो शर्म करो जनता के सामने,
सरेआम एक दूसरे पर कीचड़ उछालते हो,
हमने वो किया, यह किया बार-बार,
सफेद झूठ बोलते हो, खुद को और कितना गिराओगे ?
भोली जनता को कब तक उल्लू बनाओगे,
और अपना गोरखधंधा चलाकर पेट पालोगे ?
सरेआम बेचते हो इमान चंद सिक्कों के बदले,
गरीब, बेबस लोगों की जिंदगी दाव पे लगाते हो !
किसान बेचारा कुत्ते की मौत मर रहा है,
उसके लिये आप एक लफ्ज़ तक नहीं बोल पाते हैं !
भूखे, नंगे, कंगाल लोग दो वक्त की,
रोटी के मोहताज हैं, सब की तो यही आशा है !
जो कुछ भी हो रहा है,
बिल्कुल सही नहीं हो रहा, ऐसा मत कहो,
भारी पड़ सकता है,
यह कैसी आजादी ? कैसा विकास ?
लोकतंत्र के आड़ में अब तानाशाही उभर रही हैं !