भीड़ में ज़िन्दगी
भीड़ में ज़िन्दगी
जिधर जाती है नजर बस भीड़ ही भीड़ है,
कहीं लोगों की तो कहीं विचारों की भीड़ है।
सुलगते मन और धधकते दिमागों की भीड़ है,
झूठ, दिखावा और कोरी संवेदनाओं की भीड़ है।।
हर इंसान इस भीड़ का हिस्सा है,
ये भीड़ बन गई अब जिन्दगी का हिस्सा है।
इससे परे नहीं दिखता कोई वजूद है,
इसीलिये तो हर कोई इसमें मौजूद है।।
न चाहते हुए भी शामिल हो जाता हूँ,
मैं भी इसी हुजूम में।
डूबता ही जा रहा हूँ,
छल और प्रपंच के जाल में।।
बहुत हाथ पैर चलाए,
जाने कितने दिमागी घोड़े दौड़ाए।
पर कुछ नहीं बदल पाया,
और मैने भी मन मारकर इसे अपनाया।।
और करता भी क्या आखिर यही वो रास्ता है
जहाँ अपनी कोई जिम्मेदारी नहीं होती।
बड़ी आसानी से हम भीड़ में खो जाते हैं
जब कोई पूछता सवाल है।।
गर अपने अस्तित्व को बचाना है
और उन्नति के मार्ग पर जाना है
तो भीड़ का हिस्सा बनकर न रह जाना,
मील का पत्थर बन औरों को रास्ता दिखाना।।