बादलों की चोट
बादलों की चोट
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किसान से कहने लगे गालीब
चेहरे पे क्यु बादल छाये हुयें है I
क्या करे हम मालीक,
हम तो बादलों से ही
चोट खायें हुये है I
हमने कर्जो तले उम्मीदो के
बिज बोये हुये है
सब देखते समझते भी'हुजूर'हमारे
देखो कैसे सोये हुये है l
'मजबुरी ' के दामन से होंठ,
हमारे सिये गये है
अब तो आँखो में
नमी भी नहीं आती | काश ....
उससे ही सिचाई कर लेते I
कम्बख्त पेड भी पाणी का
हफ्ता माँगने लगे, नहीं तो !
उसपे ही लटके हुये मर लेते I
जिने की तो आस बहुत है
घरवालों के प्यारकी प्यास बहुत है
यहाँ सब वादों की खैरात लाये हुये है
इसीलीये ऐ गालीब हम मुरझाये हुये है |