गुज़रे वक़्त की यादें
गुज़रे वक़्त की यादें
कुछ नज़र नहीं आता..
घना कुहरा,धुंध ,अंधेरा
ख़ामोशी ही ख़ामोशी
बिखरी पड़ी है मीलों तक
लगता है कि बस ख़ालीपन रह गया
सब निथार के ले गया वक़्त
मेरे ज़िस्म से मेरी रूह से.
एक एक करके टूट रहे हैं
और गिरते जा रहे हैं
सारे सितारे..
और आसमां हो गया ख़ाली
खण्डहर सा.
सूनी आँखों से ताकता रहता है,
हर राह हर मोड़
भांपता रहता है
कि कोई साया लहराया क्या,
सबके आने जाने की टोह मिलती है
पर उन क़दमों की आहट कहाँ खो गयी
क्यूँ हर शाख़ सूखा सा नज़र आता है
क्यूँ पतझर सा मौसम
हमेशा के लिए ठहर जाता है
बंजर ज़मीन है,
दरारें और गहरा रहीं हैं
फिर वही गुज़रे वक़्त की यादें
कचोटी खा रही हैं