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Abhishek kabeer Khan

Abstract Tragedy

4  

Abhishek kabeer Khan

Abstract Tragedy

आखिरी शब्द तुझे अता हो

आखिरी शब्द तुझे अता हो

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मेरी कलम से अंतिम, शब्द तुझे अता हो

माफ़ी मिले तुझे, तेरी चाहे जो खता हो

मेरे आँसुओं को तुझसे ना वसूले मेरा खुदा

हम रहे या न रहे, तू आबाद सदा हो

मेरे अन्दर की औरत करती है अब भी वंदन

कई और फरेब सह सकता, ग़र तेरी ये रजा़ हो

तू ज़ुर्म कर हजार, फिर भी बरकत बरसे

ना मिले तुझे ज़िल्लत, जैसे मेरी सज़ा हो

किसी आत्मा के एवज में, ना करना कोई सौदा

किसी के भाव चीर के भी, मिले क्या वो मज़ा हो

तेरी खुशी के आड़े ना बनना है रुकावट

जाते जाते इक बार वो हँसी तो अदा हो ll


प्यार का वो लंबा अरसा भी गुज़र गया, कैसे

मैं तो बस उड़ान दिखाना चाहता था, नजर से उतर गया, कैसे

मैंने तो दिखाया था तुम्हें हर अक्ष से मुहब्बत जानो

तेरी नजरों से ये ही प्यार मर गया, कैसे

कभी सफ़र पे साथ चलने की कसमें खाई थी हमने 

मैं तो चलता रहा, तू ठहर गया, कैसे 

कहती तो तू भी थी तू खुश आबाद है संग मेरे 

अब क्या बदला जाना, तू मुकर गया कैसे 

तेरे प्रेम उन्माद में हम उछलते फिरते थे 

अब शहर पूछता साहिब तू झड़ गया कैसेll


बेमन से भी, मन को मनाने का, मन नहीं

इसे इश्क कहते हो, क्या सितम नहीं

जीवन ए तकरार में दोनों ही अव्वल रहे

तू गुरूर पे अड़ी रहीं और हम भी कम नहीं

जिंदगी बिन कुछ किए ही, तुझे मानता रहा

अब तू जीना चाहती है, और मुझमें दम नहीं

कुछेक ही तो थे, भला मेरा चाहने वाले

शहर सारा इकट्ठा है, बस वो सनम नहीं

पानी बहुत बहाया है, मैंने तेरी दगाओं पे

अब तो बस दिल रोता है, आँखें नम नहीं

सच है चार कंधे ही, ले जाते दफन करने

बेवजह भीड़ का लगना, देखो हज़म नहींll


दिनों रात तुझको चाहने में, हमने खुद को लगा दिया

इक इंसान यहाँ भी रेहता था, उसको हमने दबा दिया

लेकर तुझको चलता था, तेरे सपनों की तरफ़, 

कुछ मेरे सपने, पैरो तले, आए तो उनको कुचल दिया

वक़्त तेरा जो भी था, मेरी भी वो ही घड़ी

तेरा वक़्त तेरा ही रहा, मेरा तेरे में निकल गया

बड़ा हल्का था मेरे हुजूर, क्या था तेरा मिज़ाज

कुछ दिन दिल में रहा, फिर हाथ से फिसल गया ll



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