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प्रीत

प्रीत

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मेरे लब के मधु प्यालों से उतरा गीला चुंबन,

ठहर गया तेरे भाल की चौखट, 

रंग उजागर हुए हज़ारों उमड़े मेरे उर आँगन ! 


ओस धुली एक भोर निराली उतरी उर के आँगन

तुम आकर मानस में बिराजे

पुलकित सी मैं हो गई अन्तर्धान ! 


हिमशीत सी प्रीत है उभरी

दो उर की धूनी पर ठहरी,

जाकर जलती तप्तकणों के उपर

बिखरी मंजुल के मोती सी निखरी !


तुषार की एक रात जो छाई स्वर लहरी तारों ने गाई,

पलकों से पलकें टकराई उठा बवंडर

उमड़ा मन में लय का एक वितान !  


ताने बाने बुनती गाती प्रीत मधुर शहनाई 

तन-मन को आलोकित करता

झिलमिलाया दीप सा एक अनुराग ! 


मोह की मीठी अनमोल रश्मियाँ बाँध गई 

तुझ उर संग मेरी नाक की छोटी नथ को, 

रोशन करता प्रेम मिला मेरे तम से जीवन पथ को !


नीलगगन से अपनी प्रीत पर

बरस रही है मादकता की आभा

ओख में भर लूँ बिखर ना जाए,

 ये अनमोल नगीना।


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