गीले मौसम
गीले मौसम
उतरती है जब
गीले केशों से टपकती
पानी की बूंदों की नमी
साँसों में
छाती है धुँध
खिड़कियों के शीशों पर
मेरी-तुम्हारी गर्म साँसों की
ऊष्मा की
जब बाहर बरस रहा होता है पानी....
सिली लकड़ी सा
सुलगता है तन
जब बरसते मेह में
भीग जाती है धरती
भीग जाते हैं पेड़ों के तने,
फूल, पत्तियाँ और
घाँस, सब कुछ जब
तुम्हारी उँगलियों की छुवन
बाहों पर मिलती है
तुम्हारी गर्म साँसें
मेरी पीठ और गरदन पर
उतरती है बेताब होकर
जैसे कोई भीगा पँछी
सूखे कोटर में उतरता है
पँख फड़फड़ाकर...
खिड़कियों के शीशे
ऊष्म हो जाते हैं
प्रेम की तरलता
वक्त की आँच में
पिघल जाती है
उसके साथ ही खिल उठता है
मन के भीतर का सारा हरापन
वो गुलाबी फूल, नीली कलियाँ
जो कभी बारिश में भीगकर
बूंदों के साथ झूमती थीं
झर जाती हैं देह पर मेरी
जब भी
इस घर में
मेरे तुम्हारे बीच
ये गीले मौसम आते हैं...