आग का पता फूलों से ही पूछो
आग का पता फूलों से ही पूछो
आग का पता फूलों से ही पूछो
आग का पता फूलों से ही पूछो
जो जब भी धधकती है तो फूलों में ही
और फिर रचती है
कुछ न कुछ
जब भी सुलगती है वह
एक लड़का-लड़की के सीनों में प्रेम जैसी
तो सुलगती है बिल्कुल बेपरदा
घर, द्वार, नदी, तालाब, झरने, खेल-कूद, मैदान
सब छूट जाते हैं
प्रेम की लपटें, आग की लपटें
फूलों के चेहरों से टपकती सूर्य-किरणें
कविता में जीना, जीना स्वर्ग जैसा
मैं रहना चाहता हूँ सदा-सदा वहीँ
मेरी फटी कमीज़ को ब्रांडेड कमीज़ बताकर
मेरा मज़ाक मत बनाइऐ
जिनके पास नहीं है और साफ़-साफ़ नहीं
वे, जब भी पहनते हैं फटा तो तन ढकने के लिऐ
और ये जो खाते-पीते-अघाते घर के
पहनते हैं फटा तो धिक्कार पाने के लिऐ
धिक्कार में जीता नहीं है आग कभी
वह तो धिक्कारती है
अगर सुलग जाऐ सीने में एक बार
तो मुश्क़िल है, रोक पाना
कहीं आ गऐ है, 'अच्छे दिन'
तो कहीं प्रधानमंत्री जी कर रहे हैं 'मन की बात'
किन्तु धिक्कार में जीवन जिस आग का
उस धिक्कार से हारता है धिक्कार भी
जीवन की हार हारती नहीं है कभी भी
विलंबित हो सकती है, हो ही सकती है
जीवन-लय, किंतु बनाती वलय भी
तपेदिक से ग्रस्त सूरज के इर्द-गिर्द
इसका सुख, उसका दुःख, मोर्चा लगाओ
ख़ून का रंग लाल
गर्म होने पर लोहे का रंग भी लाल
आग-आग, रंग-रंग तमीज़
आग का पता फूलों से ही पूछो
जो जब भी धधकती है तो फूलों में ही
और फिर रचती है कुछ न कुछ