अभिप्राय कुछ भी हो
अभिप्राय कुछ भी हो
सुर-ताल
छंद-अलंकार बदल गए थे
मृदंग स्पर्श से
हवाओ के गुंजन बदल गए थे
वीणा की हर साज़ बदल गयी थी
बासुंंरी की मदिर-मधुर से
लहरों के 'ओर' बदल गए थे
घुल कर सातो रंग
फिज़ा के हर 'छोर' बदल गए थे
अभिप्राय कुछ भी हो
राग कंठ से दीपक जल गए थे
झिलमिलाने लगी थी
उम्मीदों की चिनगारियांं
अंधेरो में भटकने लगे थे
सपनों के साये
अब 'वह' सपनों की
गीतांजलि बन चुकी थी !
श्रद्धालिप्त हो वह मेरी
श्रद्धांजलि बन चुकी थी
टूटने की देर थी
डालो से पत्तियों को
कि हर मंज़र
बदल चुका था !
'श्रद्धा' घमासान में पड़े
लाशो की तरह बिखरी पड़ी थी
एक तरफ मैं और
एक तरफ 'वह'
सीना ताने खड़ी थी
पता न चला था
लाश घमासान में किसकी बिखरी पड़ी थी
पता तब चला
जब वह मुस्कुराई
कांंपते मेरे होठो पर
इक बात ही आई
"तुम तो..."
अफसोस हो रहा था
खुद पे ही शक - सा हो रहा था
टकराए किस पत्थर से
कि चोट भी न लगी
नासूर भी न दिखा
फिर उम्र भर का दर्द
क्यूँँ होने लगा ?
क्यूँँ मरने लगा हूँ
किश्तों-किश्तों में ?
क्यूँँ टूटने लगा हूँ
ज़रा-ज़रा करके ?
क्यूँँ नहीं बिखर जाता
मरुस्थल के रेतो की तरह ?
क्यूँँ नहीं बदल जाता
अंकित तारीखों की तरह ?
चाह परिपूर्ण हो जाती
पर कुछ लोग खींच लाये हैं
फिर से इस जहान में
अभिप्राय कुछ भी हो
इश्क होता है इसी जहान में !
कुछ लोग होते है
जिन्हें खून के रिश्तो से इश्क होता है
अपने इर्द-गिर्द से भी
इश्क बराबर होता है
बाकि के लोग
उनकी आँखों में रहते है
तिश्नगी बनकर
खुदा उनकी आँखों में
बरकत करना !
कयामत के समय उन्हें भी
तन्हा करना
कि उन्हें पता तो चले
कि टूटते मंज़र
कैसे होते हैं...!