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Bhavna Thaker

Abstract

2.5  

Bhavna Thaker

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स्त्री

स्त्री

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कहाँ समेटे जाती है संवेदना की सरिता,

शब्दों का समुंदर भी उमटे कागजी केनवास पर

फिर भी स्त्री के असीम रुप को

ताद्रश करना मुमकिन कहाँ..!


देखा है कभी गौर से ज़िंदगी के

बोझ की गठरी के हल्के हल्के निशान, 

औरत की पीठ पर गढ़े होते हैं अपनी छाप छोड़े..!


हर अहसास, हर ठोकर, ओर स्पर्श के

अनगिनत किस्से छपे होते हैं..! 

पोरों की नमी से छूना कभी जल जाएगी ऊँगलियाँ..!


जिम्मेदारीयों का कुबड़ लादे

एक हँसी सजी होती है

हरदम लबों पर हौसले से भरी लबालब..!


एक ज़रा सी परत हटाकर देखना

कभी मचल उठेगी गम की गगरी छलकती, 

देखना आहों का मजमा छंटकर बिखर जाएगा..!


क्या लिख पाएगा कोई उस पीठ पे

पड़ी जिम्मेदार की गठरी के लकीरों की दास्तान..!


हौले से हाथ फिराकर रीढ़ तलाशना

हर स्पर्श की एक कहानी कहेगी वो

गली हुई तन की नींव सी हड्डी..! 


जिस दिन कोई लिख पाएगा

उबल पड़ेगी ज्वालामुखी दबी हुई,

एक फूल सी सतह के नीचे ज़मीन में गढ़ी..!  


सुबह से शाम तक दिन रथ पे सवार 

एक ज़िस्त में असंख्य किरदारों से लिपटी 

औरत की शख़्सियत पे ही ये धरती थमी।


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