ठंड चुभती है !
ठंड चुभती है !
कड़ाके की ठंड में-
आज निकली थी मैं,
बिना शाल ओढ़े या स्वेटर पहने,
मैं ठंड से ठिठुर रही थी,
और,
शरीर को अहसास करा रही थी,
कि बिना गरम कपडों के,
ठंड कैसे चुभती है !
क्योंकि,
कल शाम एक बुढ़िया को,
मंदिर के एक कोने में,
फटी चादर ओढ़े सोया देखा था !
ठंड के कारण,
भाँप निकल रही थी मुँह से,
कानों को भी सर्दी लग रही थी जोरों की,
शरीर को मेरे, अहसास करा रही थी मैं,
कि ठंड चुभती कैसे है ?
क्योंकि,
कल रात एक भिखारी के बच्चे को,
फुटपाथ पर आधे कपडों में,
माँ से चिपटकर रोते देखा था मैंने !
बेसहारा, असहाय, रोगी, अनाथों को,
ठंड में ठिठुरता देखती हूँ मैं,
तो याद आतें हैं वे धनी लोग,
जो कमरे में हीटर लगाये,
मोटी कंबल ओढे सोतें हैं !
इन अभागों के लिए जाड़े की रात जैसे,
शाप बन कर आती है !
आज निकली हूँ,
बिना स्वेटर शॉल के,
शरीर को अहसास दिलाने के लिये,
कि तू भी एक इन्सान का शरीर है,
उन्ही के जैसा,
जो ठंड में नब्ज जमकर मर जातें हैं !
आज अंदर तक आहत होकर निकली हूँ,
ये अहसास कराने मेरे शरीर को-
मेरे जैसा ही है
उन मजदूर और कामवालियों का शरीर,
जो मुँह अँधेरे में,
काम पर निकल जातीं हैं,
हर मौसम में,
पर्याप्त कपड़ों और सुविधाओं के बिना,
और किसी और का काम निपटाने के लिये,
खपती है ठंड में भी,
पसीना छूटने तक,
क्योंकि,
उसके बिना उनके घर,
शाम को चूल्हा नहीं जलता !
सभी के शरीरों को,
ये भी समझना ज़रूरी है,
कि जानलेवा ठंड में,
वो जवान करतें हैं देश की रखवाली,
हर उस सीमा पर जो हमारी है,
तब हम सो पातें हैं निश्चिंत होकर,
बंद कमरे में, कंबल ओढ़कर,
कहतें हैं एक दूसरे से-
इस बार ठंड बहुत है !
उस समय मनमें उनका खयाल भी तो हो !
आज सचमुच शरीर को,
अहसास कराना चाहती थी कि,
ठंड चुभती कैसे है ?
इसलिये निकली हूँ,
कड़ाके की सर्दी में-
बिना गरम कपड़ों के !
बिना स्वेटर या शाल के !