इन्द्रधणुष
इन्द्रधणुष
एक चित्र बनाया मैंने, पर रंग नहीं था मेरे पास
खरीद कर ला सकूं, पर दाम नहीं था मेरे पास
भागा-भागा गया मैं आसमां के पास
आसमानी रंग लिया उधार
पेड़ो से मांगा हरे रंग की बहार
मेघ ने दे दिया काला रंग बेशुमार
पूरब ने दे दी सूरज की लाली
चांद ले आया रंग चमकीला भर थाली
बादलों का देख उजला रंग
लेने को फड़का अंग-अंग
पानी से मांगा पसार कर हाथ
रोने लगी वो नैनों पर रख कर हाथ
काश मेरा भी होता कोई रूप
भरता मुझमें भी कोई रंग
नहीं अपना मेरा कोई रंग
दूसरों की छाया ही है मेरा रुप-रंग
हवा से मांगने को हुआ तो वो पहले ही बोल पड़ी
गई गुजरी हूँ मैं पानी से भी
वो दिखता तो है, मैं वो भी नहीं
फूलों से गुजारिश की तो वो बोली नहीं
खुशबू चाहे तो ले जाओ मैं आज हूँ कल नहीं
मैने बोला नहीं देना तो मत दे
बहाने भी क्यूं बनाती है
मुझे आता देख मिट्टी ने दूर से ही ठेंगा दिखा दिया
बिना मांगे ही खाली हाथ लौटा दिया
दर-बदर क्यूं फिर रहे हो लेकर रंगों की चाहत
सीधे जाकर इन्द्रधनुष से मिलो
वहां मिलेगी तुमको राहत।