मन अब कोरा कहाँ रहा...
मन अब कोरा कहाँ रहा...
जुड़ जाते हैं बंधन,
जुड़ जाते हैं नाम,
जुड़ जाते हैं परिचय..
जुड़ जाते हैं ऐसे ही जीवन के रिश्ते
कि अब साथ ही जीना है सदा
तुम्हारा और मेरा अब हमारा होगा ...
पर मन
कभी कभी कोरा ही रह जाता है ..
ना कोई रंग चढ़ता है
ना कोई सपना गड़ता है ..
और अचानक किसी रोज़
आ बैठता है कोई आगंतुक
घोलने से लगता है कुछ रंग ..
खींचने सी लगता है कुछ लकीरें
जो सीधे मन पर उतरती हैं
और धीरे धीरे रंग उकेर के
पूरी तस्वीर बना जाता है..
बस तभी तो अहसास होता है
कि अब तक कितना बेरंग था ये मन ..
कोरा था..
पर अब कहाँ रहा कोरा
गड़ गया कोई अपना नाम
ऐसा रंगा कि अब गुंजाइश ही नहीं
कि कोई कुछ और
उस पर लिख पाए..
मन अब कोरा कहाँ रहा...