लापता
लापता
चल पड़े हैं मंज़िल की ओर,
मंज़िल नहीं पता।
बुझने लगे हैं दिये,
फिर भी उम्मीद की आस है बाकी।
उभरने लगे है संभलने लगे हैं हम,
ना कोई ग़म न कोई शिकवा,
चल पड़े हैं हो के लापता।।
कभी कभी उन लम्हों को याद करते हैं
जब हम एक हो कर साथ जिया करते थे
तन्हाईयों में रस भरी मदहोशी
का जाम लिया करते थे...।
किस्मत भी ये कहाँ ले आयी है
जो गुजरते हैं सामने वो
और देख कर अनदेखा कर जाते हैं।।