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वो दर्द का मंज़र

वो दर्द का मंज़र

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वो रात भी क्या अजीब थी, 
किसी को भी हया थी ना तहज़ीब थी।
वो लड़की सड़क पे पड़ी थी, 
मूकदर्शको की टोली सामने खड़ी थी।

लूटी जा रही थी उसकी जब आबरू 
देख कर किसी की भी ना कांपी रूह।

वो बस वही पड़ी कराह रही थी, 
मदद की गुहार लगा रही थी।

उसके आँसू की हर बूँद में गहरा दर्द था, 
मूकदर्शक बनके भीड़ में खड़ा हर शख़्स, अब उसकी नज़र में नामर्द था।

किसी ने ना उठाई आवाज़, 
ना सच देखा, 
उनके लिए इन सब में उस मासूम का ही कसूर था।

कुछ थे जो बनते थे दुनिया के ठेकेदार, 
चरित्र पे सवाल उठाना जिन का काम था।
वहा से निकलने के वो बना रहे थे बहाने हज़ार, 
लफ़्ज़ों से निकली उनकी हर बुराई में उस लड़की का ही नाम था।

एक बजरे सी वो निकली थी, 
नये साहिलों की तलाश में।
वो महीन थी, 
वो ज़हीन थी, 
वो थी आज़ाद परिंदे सी, 
अब्र पर चलना ही उसकी मंशा थी।

पर दो पल में उन हैवानों ने उसकी अस्मत को लूट लिया, 
वो टूट गयी, 
वो हार गयी, 
उसको एक ऐसा मरज़ दिया।
पर मामूली ये बात है इस घटिया समाज़ के लिए।
पहले भी लाखों दामन, घूमे हैं ऐसे दाग लिए।

फिर भीड़ छ्टी, सब घर को निकले, 
मामला बिल्कुल शांत हुआ।
लड़की को इंसाफ़ ना मिला, 
आख़िर ये कैसा इंसाफ़ हुआ।
आख़िर ये कैसा इंसाफ़ हुआ।
आख़िर ये कैसा इंसाफ़ हुआ।


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