अपने लिए एक कविता
अपने लिए एक कविता
चार दिनों की मेरी कहानी
चार दिनों के मेरे फ़साने
आज नहीं है कद्र किसी को
बाद मेरे भला किस को होगी।
फिर भी नहीं कोई शिकवा किसी से
फिर भी नहीं कोई गिला किसी से
जब अपने ही अपने ना हुए तो
गैरों से क्या उम्मीद रखनी।
हँस लेते हैं हर पल
आँखों के आँसू छुपाते हैं
झूठी ये हँसी ही अब
बन गयी है दोस्त मेरी।
और नहीं दोस्त रहा अब
तन्हाइयाँ ही दोस्त मेरी
चाँद सितारों से बाते करते हैं
दरों दीवारों से बातें करते हैं।
इनको अपना हाल सुनाते हैं
इनके संग हँस लेते हैं हम
चार दिनों की मेरी कहानी।।