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मैं दीवानी

मैं दीवानी

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मैं पागल हूँ, 

दीवानी हूँ उसकी हर अदा की, वो आवारा

नहीं मस्त है अपने शौक़ का शौकीन दीवाना

वो जो कुछ भी करता है उसे महसूस करता है,

वो मुझे मीठी नींद से जगाकर गेंद थमाता है

रिमझिम बारिश की फुहार बरसती है जब

छत पर खुद बल्ला घुमाता है 


गुलमोहर के पेड़ पर बसेरा उसका सीधे

कूदता है बहती नदियों की लहरों की गोद में। 

पर्वतों को खूँदते आसमान को छूता है,

मैं कहाँ पहुँच पाती हूँ उसकी लंबी दौड़ की

रफ़्तार तक, मैं गिरती पड़ती कोशिश में

छील जाती है हथेलियाँ, वो नम आँखों से 

मिट्टी पोतते मेरे गालों को सहलाता मेरे सारे

दर्द को खुद में समेटता कानों में फुसफुसाते

कहता है मेरी सारी ख़ुशियाँ तेरी तू सिर्फ़ मेरी


कहो कैसे न कहूँ मैं खुद को दीवानी उसकी।

हर मौसम में एक नया जादू जगाता हर चीज़

में माहिर आग का दामन थामें खेलें हवाओं से,

चुटकी में पलटाता हर दाँव को घूमाता


कलम को रगड़ते कागज़ के सीने पर गीतों की,

गज़लों की तानों से खेलता

मेरी हर अदा को हँसती आँखों से निहारते गेसूं

को जंजीर, तो लबों को जाम, ओर बाँहों को हार

लिखता


हर सपने को हौसले की परवाज़ देता नील गगन

के शामियाने पर पतंग सी उड़ाते मेरा हाथ

थामें बादलों के साये में गुम होता।

हर अहसास को शब्दों में ढालते लपेटता अपनी

ओर खींचते हर खेल मुझसे खेलता, मेरे गालों के

गड्ढे में खुद को डूबोता


बेफ़ाम, बेफ़िक्र, बेसबब सा वो आगे बढ़ता,

मैं एक मोड़ पर चाहूँ ठहरना

पर खेल तो आख़िर खेल है खत्म होना है लाज़मी,

वो जीतते जाता है हर बाज़ी,

मैं आख़री दाँव खेलती खड़ी हूँ उसी मोड़ पर

उसके पीछे पागल सी


वो अपने आसमान का आज़ाद पंछी दूर तक

उड़ना चाहता है मेरे वजूद को अपना हिस्सा

बनाते 

मैं बाँधना चाहूँ पगली बहते आबशार को जो

मुमकिन ही नहीं।।



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