प्रेम व्यथा
प्रेम व्यथा
समझों न तुम इसे कथा-कहानी,
ये है मेरी प्रेम व्यथा पुरानी|
मैं बनके खुद श्याम,
चाहता हूँ तुम्हें राधा बनाना|
पर तुम बनके रत्नावली,
क्या चाहती मुझसे मानस रचाना|
तुलसी को हैं राम प्रिय,
सूर को हैं घनश्याम प्रिय,
पर तुमको छोड़ ये धरा है जानती,
तुम ही हो मेरा संसार प्रिये|
माना कर दी मैंने भूल बड़ी है,
पर उसकी मुझको मिली सजा है
पर शायद एक तरफा प्रेम का,
अपना ही एक अलग मज़ा है|
ये मज़ा भी है, ये सज़ा भी है,
ये तड़प भी है, ये लगन भी है,
कुछ भी करके तुमको अपना बनानें की,
खायी फिर मैंने कसम भी है|
आखिर तक ये कसम मैं पूरी निभाऊंगा,
तुम अगर नहीं मानी तो,
बनके मजनू मैं भी मर जाऊंगा |