विकास या विनाश
विकास या विनाश
सड़क किनारे लगे विज्ञापन,
वे बस्तियाँ और पिछड़ापन,
मुझे दिखा धूंधला सा
विकसित भारत का वो दर्पण।
कीचड़ से सनी बच्चों की टोली,
कोई खेले खून की होली,
बन्द हैं साँसें ताबूतों में,
बोले पंछी इंसानी बोली।
कटते वृक्ष मास्टर प्लान के खातिर,
दम तोड़ते जीव इंसान के खातिर,
सिमट रहा पर्यावरण का घर,
बस दिखावटी विकास के खातिर।
मशीनों का वसुन्धरा पर घर्षण,
चन्द दिनों का सा आकर्षण,
मुझे दिखा धुंधला सा,
विकसित भारत का वो दर्पण।
वाहनों की बढ़ती तादातें,
पत्तों सी बिखरती लाशें,
कुछ एक के ऐश-आराम को,
दिन प्रतिदिन बेचती वारदातें।
चहल पहल अब बनी क्रन्दन,
टूट चुके समाज के बन्धन,
मुझे दिखा धुंधला सा,
विकसित भारत का वो दर्पण।।