मैं भारत हूँ !
मैं भारत हूँ !
मैं भारत हूँ -
कल्पना,परिकल्पना का इतिहास,
वर्तमान
और भविष्य -
मैंने क्या नहीं दिया ...
पर निराशा से उबार ही नहीं सके
खुद को तुम सब !
जाने किस 'और' की प्रत्याशा में
तुम मेरी धरती के चप्पे चप्पे छानते रहे ....
हर प्राप्य से उदासीन
तुमने सिर्फ नष्ट करना शुरू किया -
भाषा, संस्कार, प्रकृति, प्राणवायु
जीवनशैली .... सब कुछ !
'और' 'और' की प्रत्याशा में तुम
पश्चिम की तरफ अग्रसर हुए,
बच्चे दूर, अपनापन दूर -
अकेलापन गहराता गया
और खुद से बनाये
अकेलेपन से त्रस्त तुम
संबंधों का हवाला देने लगे !
मुझसे अधिक बुज़ुर्ग तो
कोई नहीं न यहाँ -
क्यूँ ? - इन्कार तो नहीं न ?
मैंने माँ का रूप निभाया,
पर तुम सब मुझे,
मेरे आँचल को तार तार करने लगे।
बहुत समय नहीं बीता है
मेरी ही संतान -
जो धरोहर की तरह किताबों में बंद हैं
तुमने उनकी कुर्बानियों को
जाया कर दिया।
तुम कोई जवाब देना नहीं चाहते
इसलिए सब के सब प्रश्नकर्ता बन बैठे हो
क्या मुझे कुछ जवाब दोगे ?
अपनी माँ की भाषा हिंदी को
तुम कितना जानते हो ?
कितना शुद्ध शुद्ध लिख सकते हो ?
वेद -उपनिषद का कितना ज्ञान है तुम्हें ?
गीता का क्या महत्व है ?
पश्चिमी सभ्यता का अनुकरण करते हुए
गर्व से उसकी नागरिकता लेते हुए
तुम्हें कभी शहीदों की पुकार
नहीं सुनाई दी या देती ?
किसी माँ का अकेलापन नहीं दिखता ?
किसी पिता के लडखडाते कदम नहीं दिखते ?
किसे एक करना चाहते हो तुम सब ?
और एक देखना चाहते हो ?
अपने बच्चों से अपने प्रति
फ़र्ज़ की चाह रखने से पूर्व
मेरे प्रति कोई फ़र्ज़ नहीं याद आता तुम्हें ?
तुमने मेरे आँचल में उमड़ती गंगा को दूषित किया
मेरी गोद में खड़े पर्वतों को राख कर दिया।
अपने स्वार्थ की जीत के लिए
तुमने हर मर्यादित सीमा का
पारम्परिक सीमा का
उल्लंघन कर दिया।
मैं रोज सुबह अपना चेहरा
पहचानने की कोशिश में रहती हूँ
क्या सच में मैं वही भारत माँ हूँ
जहाँ पावन लोग रहते थे ?
जिसके लिए दुर्गा भाभी दृढ हुई
भगत, सुखदेव, राजगुरु
समय से पहले फांसी पर चढ़ गए।
आज मैं हूँ भी
या नहीं हूँ ?
अंग्रेजों की ज़ुबान पर
मैं सोने की चिड़िया थी !
मुझे पिंजरे में बंद कर
तुम विदेशी बैंकों में ले गए
और कहते हो -
क्या रक्खा है यहाँ !
सच !
क्या है यहाँ ?
पैसों के आगे रिश्तों का क्या मूल्य ?
एक दिन तो मर ही जाना है न !