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माँ

माँ

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खुली हवाओं से खेलकर 

जब मैं घर की चौखट पे आयी

सबकी आंखों में देखा 

तो सवाल बहुत थे

जब माँ की आँखों में देखा

तो पाया, जवाब बहुत थे

 

उसकी ख़ामोश ज़ुबां 

मुझे शब्दों के आंचल से

ढ़कने  की ख़ातिर

ढ़ाल  बनने को आतुर हो रही थी

बेटी बुद्धु है क्या?

बोल माँ ने भेजा था

और दौड़  के आ 

मेरे आंचल में समा जा

इन शब्दों के चित्र मुझे ढ़क  से रहे थे

बिखरने से पहले समेटे जा रहे थे

 

आख़िरकार माँ मुझे 

बचा कर ले आयी

अंगुली पकड़  कर अंदर बैठायी

क्यों देर हो गयी

पूछने से पहले

भूख लगी होगी तुझको 

माथा सहला गयी

 

नम हो गयीं मेरी आंखें

ये सोच कर 

घर भी बटेगा ज़मी भी बटेगी

दिल भी बटेगा और माँ भी बटेगी

कुछ दिन इस बेटे के घर

कुछ दिन उस बेटे के घर

क्या माँ की ममता भी अब

इशारों पे नाचेगी

क्या माँ होने की क़ीमत 

वो ऐसे चुकायेगी।


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