निग़ाह
निग़ाह
1 min
7.0K
सदमे उठा के जी ने का लम्हा बना रहा,
खुशियों का दौर सामने आकर खड़ा रहा।
उनकी निगाह सबपे बडी महेरबां रही,
लेकिन हमारे नाम से गिला-शिक़वा रहा।
नज़रों के सामने था किनारा पा न सके,
इतनी कमी रही के नसीबा अड़ा रहा।
क़िस्मत का खेल देखो कुछ आया न हाथ में,
दामन उमिंदो का तो हमारा धरा रहा।
बढ़ती चली गइ मोहब्त की आरज़ू ,
उनके हमारे दरम्यां इक फासला रहा।
नजरे जहां से खुद को बचाते चले गये,
फीर भी हमारे वस्ल का सबको पता रहा।
मासूम चले थे आपतो हस्ती संवारने,
फ़िर क्या हुआ के ज़िन्दगी से ग़म लगा रहा।