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ग़ज़ल

ग़ज़ल

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चाहत का एहसास जगाने वालों से,

हारे हम भी दुरी निभाने वालों से।

दिल में अपने चल निकला है पागलपन,

आस बड़ी है हमको सताने वालों से।

जलवा उनका अपने मन को भाया है,

गुजरे अपनी तनहा कैसे हालों से।

भोली सुरत जिनकी छाई आखों में, 

अब वो निबाहें नाता हम मतवालों से।

फुरकत ने फैलाया घोर अंधेरा रातों का,

आकर जोड़ो रीश्ता अब उजालों से।

तरसे हम, मन की बढ़ जाती है बेताबी,

बरसों यारा प्यार भरे बदहालों से।

बदला बदला वक्त का आलम भारी है,

चलना भारी पड़ता पांव के जलते छालों से।

ख़्वाब सजाये गुम रहे हैं गली कूचों में ,

रुह भटकती रही गहेरी चालों से।

मासूम कब तक का है अपना तनहा सफ़र,

कुछ तो फुर्सत मिले ग़म के नालों से।


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