मैं थी, मैं हूँ, मैं रहूँगी
मैं थी, मैं हूँ, मैं रहूँगी
जिन्दगी को बेखौफ़ होकर जीने का
अपना ही मजा है
कुछ लोग मेरा अस्तित्व खत्म कर
भले ही यह कहने की मंशा मन में पाले हुये हों
कभी थी, कभी रही होगी, कभी रहना चाहती थी नारी
उनसे मैं पूरे बुलन्द हौसलों के साथ
कहना चाहती हूँ, मैं थी, मैं हूँ, मैं रहूँगी ...
न्याय की अदालत में गीता की तरह
जिसकी शपथ लेकर लड़ी जाती है हर लड़ाई
सत्य की, जहाँ हर पराजय को विजय में बदला जाता है
गीता धर्म की अमूल्य निधि है जैसे वैसे ही
मेरा अस्तित्व नदियों में गंगा है
मर्यादित आचरण में आज भी मुझे
सीता की उपमा से सम्मानित किया जाता है
धीरता में मुझे सावित्री भी कहा है
तो हर आलोचना से परे वो मैं ही थी जो
शक्ति का रूप कहलाई दुर्गा के अवतार में
मुझे परखा गया जब भी कसौटियों पर
हर बार तप कर कुंदन हुई मैं
फिर भी मेरा कुंदन होना
किसी को रास नहीं आता
हर बार वही कांट-छांट
वही परख मेरी हर बार की जाती
मैं जलकर भस्म होती
तो औषधि बन जाती
यही है मेरे अस्तित्व की
जिजीविषा जो खुद मिटकर भी
औरों को जीवनदान देती है, देती रहेगी !!!
मैं पूरे बुलन्द हौसलों के साथ फिर से
कहना चाहती हूँ, मैं थी, मैं हूँ, मैं रहूँगी ....