कुछ सपने बोये थे
कुछ सपने बोये थे
१. कुछ सपने बोये थे
उसने कुछ सपने बोये थे,
जमीन की करी गुडाई थी,
खेत की मुंडेर बनायीं थी,
बहुत करी सिचाई थी,
फिर बो दिए सपनों के बीज |
सपने बेटे की पढाई के
बेटी की सगाई के
माँ बाबा की दवाई के
चुडी भरी बीबी की कलाई के
रोप दिए थे नन्हे पौधे |
उम्मीद भी यही थी –
की कल जब ये पेड़ पनपेंगे
तो सपने भी जवान होंगे
धीमे धीमे परवान होंगे
और मिलेगा सुन्दर फल |
सपने सब बड़े हो रहे थे
आँखों के सामने खड़े हो रहे थे,
कोपलें मुस्कुरा रही थी
नन्ही कलियाँ खिलखिला रही थी
सपने बढ़ने जो लगे थे |
बेटे की उम्मीद की डोर
से उडी पतंग सी ,
बेटी की मन में भी कई
नयी नयी उमंग थी
सपनों ने ली अंगडाई थी |
माँ बाबा की आंखों में
नए से रंगीन ख्वाब थे
बीबी की कलाई में
चुडियों के रंग बेशुमार थे,
सपने रंग ला रहे थे |
अचानक सपने बरसने लगे,
ठंडी आग में झुलसने लगे,
अश्क बन आँखों से ढलकने लगे,
शुष्क रेत से सपने दरकने लगे ,
सपनो की मौत होने लगी थी |
आँखों आँखों में आँखों ने
तब कई बातें की थी ,
जिन सपनों में रंग भरने को,
कितनी जवां रातें थी दी ,
वो सारे सपने आँखों के
स्याह अंधेरे ने आ घेरे थे |
सिर्फ एक सवाल था मन में
कहा से होगी बेटे की पढाई
कौन करेगा अब बेटी से सगाई
माँ-बाबा की दवा नहीं आई
सूनी रहेगी बीबी की कलाई |
ध्वस्त हुए मुंडेर पे बैठे,
सीचे गए खेत को और बहते,
वक़्त से पहले समय के रहते,
समस्त सपने बीज रूप में ही,
सड़ने – गलने लगे थे |
सिर्फ एक आभास था अब,
कुछ नहीं हाथ था अब ,
बोये हुए कुछ सपनो की,
अब सिर्फ बची लाश थी,
जिन्दगी उसके लिए परिहास थी |
आज सबकी भूख मिटाने वाला ,
अपनी ही भूख से डर गया,
आँखों में बसे स्वप्न क्या टूटे
बिखरे सपने देख फिर किसान
वक़्त से पहले ही मर गया |
क्या कोई हाथ नहीं ऐसा
जो बड़ता आगे और कहता
तू ख्वाब नए फिर बो करके
सपनो को जिंदगानी देना,
पर न तू कभी जान देना |