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शिल्पकार

शिल्पकार

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एक बुत

तराशने वाले से अचानक एक सवाल कर बैठा

मैं ऐसा क्यों हूँ, मैं वैसा क्यों नहीं

वे ऐसे क्यों है, वे मुझ जैसे क्यों नहीं


मुस्कुराते शिल्पकार बोले

यह सब कर्मों का लेखा जोखा है

हर बुत एक खिलौना अनोखा है

जब तराश रहा था मैं बुत अनगिनत ,

समानता रखने में नहीं थी कोई किल्लत

एक ही भाव थे, एक ही जीवन शैली

एक ही मिटटी में इंद्र धनुष के सब रंग डाले.

खिलती धूप, तन को छूती हवाएं, सब थे, बिन रंग काले

पर वक्त के फेर में कोई शोहरत की तरफ भागा

तो कोई दौलत की तरफ, तो किसी को लालच ने आकर घेरा


तुम्हें तराश रहा था जब मैं, फ़ैल गया था नूर सृष्टि में

सामने से प्यार आया , हौसला आया

और तुम में समाये, हिम्मत समायी ,

मोहब्बत समाई , समंदर जैसा दिल भी समाया

भाग गई नफरत तेरा नूर देखकर

लालच भी हौले से निकल गया मुँह छिपाकर


फिर आई शोहरत और बुलंदी , हौले से वे भी भागे आगे

मैंने तो आवाज़ भी दी थी ,

"आओ मेरे इस बुत में समाओ"

वे बोले " ए शिल्पकार, जो रस - रंग इसमें समाये

वक्त बेवक्त हमें अपनी और खींच ही लेंगे

उठाएगा तेरा यह बुत जब जब अपने हाथ

हमेशा पायेगा हमें अपने साथ..

इंसानियत भी आई , तेरा नूर देखकर चकित रह गई

और वहीं बगल में बैठ गई,

मैं उससे देखता रहा, और तुझे बनाता रहा


तो हे बुत, तुझे बनाकर मैंने इंसानियत बनाई

सुलझाने की कोशिश में क्यों लगे हो, तू ज़िन्दगी को जी,

चलते वक्त के साथ तू भी चल

पर अपना रास्ता कभी न बदल

दिल खोल कर तू सांस लेता जा

हर मोड़ पर मुझे ही हमेशा तू पायेगा


यूं तो हर तराशे हुए बुत के साथ खड़ा हूँ मैं

कई पहचान जाते हैं , तो कई अनदेखा कर देते हैं

तो हे बुत, कुछ बदलने की कोशिश न कर

कुछ तो मुझ पर छोड़ भी दे

खुद ही सुलझाने की कोशिश न कर

तू अपने कदम आगे बड़ा

हर कदम पर मैं तेरे साथ हूँ खड़ा

रख विश्वास कुदरत की करिश्माई पर

उठा कदम और मंज़िलें पार कर ...


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