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जीने की चाह

जीने की चाह

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वो उड़ना चाहती है

असीम आसमान में

ख्वाहिशों के पर लिये

मीली है जो ज़िन्दगी

जी भर जीना चाहती है

अपने सारे सपनो को समेटे आँखों के

कटोरों में तारों के संग बातें करें

हवाओं संग लहराये

फूलों से रंग चुराकर केनवास पे चित्र बनाए

आडा-टेढ़ा मुँह बनाकर आईने संग इतराये

लिपिस्टिक लगाकर हाथों से पोंछ ड़ाले

मुठ्ठी से आँखें दबाकर काजल गालों पे बिखेरे

बच्चों सी खेले कूदे आस-पास न कोई देखे

कॉफ़ी का मग ओर मनचाही नोवेल,

शांत झरोखा ओर ढ़लती सी शाम हो...

एक एेसा जहाँ चाहती है

जिसमें खुलकर साँस ले सके

जब चाहे सोए,जब चाहे उठे

मन हो तब कोई काम करे

वरना पड़ी रहे दिनों तक

बस सुस्त तन ओर मन में

खुशियों के ख़्याल संग.....

न राशन की फ़िक्र,न पति की किचकिच,

न सास की झिकझिक,न बच्चों की दादागीरी,

बस खुद से मिलना चाहती है पहचानना चाहती है,

जीना चाहती है सिर्फ खुद के लिये...

जिम्मेदारी के बोझ से लदे काँधे को हल्का कर

आज़ाद सी मस्ती में नदी सी बहना चाहे....

बादलों के पार क्या कोई है जहाँ ऐसा

जहाँ हर स्त्री मनमौजी सी थकी-हारी,

घर बनाकर रहना चाहे बस कुछ एक दिन


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