यथार्थ
यथार्थ
खयालों की राह में बैठी हूँ,
नई दुनिया का आकार लिए बैठी हूँ।
मैं मुख पर अपने आवाज़ नई,
सपनों का संसार लिए बैठी हूँ।।
हूँ कैद कहीं या उड़ान भर चुकी हूँ,
क्या थी मैं, अब क्या बन चुकी हूँ।
कह रही थी कल,
"क्यों जी रहा हूँ मैं ?"
अपनों की ज़िन्दगी का अब भार लिए बैठी हूँ।।
विचित्र है बड़ी ये सपनों की दुनिया भी,
पल में यथार्थ, पल में भ्रम लगती है।
मैं जागती रहती हूँ इन सपनों के भीतर,
ये मेरे भीतर गहरी निद्रा में होती हैं।।
तज़ुर्बा नहीं मगर वक़्त ने सिखाया है,
दूजों को देखकर जीने में सबने वक़्त गंवाया है।
लाख कोशिश की मैंने पर कुछ न कर पाई मैं,
वक़्त ने आखिरकार मुझे भी आज़माया है।।
मैं इस वक़्त से तज़ुर्बे हज़ार लिए बैठी हूँ,
सृष्टि का स्वयं पर आभार लिए बैठी हूँ।
भीग रहीं हूँ मैं इन अनदेखी ख्वाहिशों में,
हृदय में सबके लिए प्यार लिए बैठी हूँ।।