अभागिन
अभागिन
शादीशुदा निर्जीव सी
चुटकी भर सिंदूर से सजी
अपने विचारों से बौनी
ना कहने से घबराती,
उठती है सुबह सकुचायी
नीले निशान छुपाती
ढकती पल्लू से गरदन
पर चुगली करते कटे लब
घर के बुतों के उलाहनों को,
सीने पे झेले निभाती हर काम
मौन धरे लबों पर
नम आँखों को दबाती
विद्रोह से विलुप्त अबला सी,
सोचती मन ही मन
अख़बारों के पन्ने पर
रोज ही छपते है मेरी ही
कहानी के किस्से,
फ़र्क क्या है मुझमें और
इस प्रताड़ित अबला में
काले मोती ने है बाँधा मुझको
माँग भरने से क्या मिल जाता है
उसको अधिकार,
मेरी मर्ज़ी के खिलाफ़
करना बलात्कार
ना जो बोलूँ तो दबोचकर
बेशुमार मार,
क्यूँ करता है
अपनी नामर्दगी का प्रदर्शन
मेरी लाचारगी के साथ,
पनप रहे हैं बवंडर
मन के किसी कोने में
आँधी उठेगी जब कभी विद्रोह की
कुचल कर रख देगी वह शैतान को।।