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Anushree Goswami

Drama

5.0  

Anushree Goswami

Drama

वृक्षात्मा

वृक्षात्मा

2 mins
14K


उस काली अँधेरी रात में, एक आहत सी थी,

काले घने वृक्षों के बीच, क्या वह अजनबी थी

नहीं, वह थी वृक्षात्मा, जो घने जंगल के बीच,

हुंकृति लगाकर कह रही थी, मत मारो मुझे।

कोई न था वहाँ,

सहती रही अकेले वह दर्द,

उस कायर शिकारी से बचती फिर रही थी,

जिसने स्वार्थ के लिए कर दिया था उसका कत्ल।।


उसकी आँखों में आँसू नहीं थे,

शायद वह अपना दर्द पी गई थी,

सहमी हुई जा रही थी वहाँ से,

उस कायर शिकारी से भयभीत थी।

पर थी उसके अंदर एक क्रोध की भावना,

उस कायर शिकारी के लिए,

हुंकार लगाकर कह रही थी,

मैं फिर वापिस आऊँगी, इसके वध के लिए।।


उसके भीतर छिपा दर्द,

शायद कोई न समझ पाया,

वृक्ष तो दिखता है बाहर से कठोर,

परन्तु मानव के मन को कठोर किसने बनाया।

कठोरता दिखता चला जा रहा वह मनुष्य,

मुड़कर न देखा एक बार भी उसने,

पीछे खड़ी हज़ारों वृक्षात्मा पूछ रही थीं,

हमारे वध का तुझे अधिकार दिया किसने?


उस पापी मनुष्य के जाने के बाद,

वृक्षात्मा का हृदय भर आया,

न सह सकी वह अपना दर्द,

परमेश्वर से अपना क्रोध जताया।

फिर देखने लगी उन छोटे पौधों को,

और सोचने लगी वह अपने मन में,

क्या होगा इन नन्ही-सी जान का,

कटेंगी या रहेंगी इस नरक में?


क्या अगली पीढ़ी के साथ मिलकर,

रह पाएँगी यह नन्ही-सी जान,

या फिर मेरी तरह यह भी सवाल करेंगी,

क्यों ले ली तुमने हमारी जान।

पर वह वृक्षात्मा भी न कुछ कर सकती थी,

जानती थी कि वह मर चुकी थी,

सारे रास्ते बंद हो चुके थे उसके जीवन के,

अपने मन को मारकर जा रही थी जंगल से।।


पर जाते-जाते खड़े कर गई वह अनेक सवाल,

शायद जिनके उत्तर न दे पाएगा कोई इंसान,

जिंदा थी वह अब भी कायर शिकारी की मृत्यु के लिए,

हर वृक्षात्मा जिंदा है अपने मृत्युदायी को मारने के लिए।

जा बैठी एक कब्र में,

बिलखती रही मन ही मन में,

सवाल पूछती रही काले अँधेरे से,

जवाब ढूँढती रही अपने स्वप्न में।।


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