धुआँ
धुआँ
सुनहरी सुबह की आस में,
बहुत रातें मैंने जागते हुए काटी !
हर बार सुनहरी सुबह नहीं,
लेकिन मुझे दिखा,
धुआँ निकलता हुआ,
मेरा सारा आसमान धुएँ से भरा हूआ !
जब देखना चाहा,
धुआँ कहाँ से निकल रहा है,
हर बार मैंने जाना,
धुआँ तो मेरे ही सपनों के,
जलने से निकल रहा था !
तब बात थी,
सुबह की आस में,
रातों में जागना अच्छा लगता था,
रातें बहुत प्यारी लगाती थी !
अब तो बस, डर-सा है,
की कौन-सा सपना,
जलता देखना पड़ जाए !