बरसो ना
बरसो ना
बारिश की मेहनत रंग लायी है,
उग आयीं हैं
सूखी, भूरी चट्टानों पे,
नन्ही हरी पत्तियाँ !
मिट्टी से उड़ रही है
सौंधी ख़ुशबू,
उजाड़ दरख़्तों पे
कोपलें फूटी हैं,
शांत झीलों में
हलचल मची है,
अनछुए पर्वतों से
बह रहे हैं प्रेम के झरने !
टूटे ख़्वाबों के शीशे
फिर जुड़ने लगे हैं,
लू की थपेड़ों से
राहत मिली है,
देखो ज़रा फिर से
ठंडी हवा चली है !
मन की कुंठा
मिट्टी के डेले सी
ढह गयी है,
बारिश हो तो
भीग ही जाती है
आत्मा!
कि बारिश और सूखा
साथ नहीं रहता !
आज..
तुम भी बरसो ना..!