फिर लौटी हूँ
फिर लौटी हूँ
आज मैं फिर लौटी हूँ
वो रूमानी एहसास समेटने जो कल भी वहाँ नहीं था
आज भी खाली-खाली है एक व्योम हीन आकाश सा.!
जानती हूँ अंदर ही अंदर
जहाँ वसंत ने कभी कदम ही नहीं रखा उस पतझड़ में ही लौटी हूँ,
बदला हुआ मंज़र नहीं ये मेरे कालजयी स्वप्नों का ढ़ेर है.!
ये तो बस मेरी मृगतृष्णा है जहाँ यंत्रवत लौटती हूँ
हर बार एक ऋतु की चाह में जिसे लोग वसंत कहते है.!
कुरेदती हूँ स्मृतियों की पपड़ीयाँ पोरों को पीड़ा के सिवा कुछ हासिल कहाँ
मन का परिंदा लहू-लुहान सा अपनी कोशिश में नाकाम लौटता है बार-बार.!
जो कभी लभ्य ही नहीं उसे पाने की खेवना जब बढ़ती जाती है
तब में लौट आती हूँ दिल के सूखे घावों को हरा करने इसी जगह।।