जब चाहे बुला लेती हूँ तुम्हें...
जब चाहे बुला लेती हूँ तुम्हें...
सहेज कर रखा है एक सूखा फूल
तेरी याद-सा,
अपने मन की किताब में,
वक्त की छाप से मटमैली हुई पत्तियों में
अभी तक समाई है
तेरे हाथों की छुअन…
मेरे छूते ही तेरा स्पर्श जीवंत हो उठता है
गुलाल-सा बिखर जाता है मन की दहलीज़ पर
मेरे पोरों में सुलग उठती है
तेरी हथेलियों की तपिश
ताजा हो उठते हैं अनकहे एहसास,
तुमसे बतियाते, रूठते, मनाते,
अबोला ठानकर कभी लजाते,
तदाकार हो जाती हूँ तुझमें,
भूल जाती हूँ दुनिया,
रिश्ते-नाते, उलझनें-दिक्कतें।
स्मृतियों से चुरा कर
जब चाहे बुला लेती हूँ तुम्हें,
मन के निगूढ़ एकांत में,
कोई बंधन, सामाजिकता,
नैतिकता, नहीं पहुंच पाती वहां
तुम्हें आमंत्रित कर फिर से
नवेली हो उठती हूँ मैं,
नव्या–नवेली।