ख्वाहिश तुम
ख्वाहिश तुम
आज
शाम को द्वार पे विदा कर के
ज्यों ही रात्रि के आरम्भ में
मैं बिस्तर की गोद में समाया
थकान से बोझिल पलकों ने
मुझे मेरी ''ख्वाहिश'' से मिलवाया
ख़्वाब में आई एक मूरत
कुछ जानी कुछ अनजानी-सी
कुछ सकुचाई
फिर धीरे से मुस्कुराई
आप कौन
जैसे सवाल ने तोड़ा मेरा मौन
समय की निर्बाध गति में
जीवन की आपाधापी मे
छूट गए थे जो पल
यादों के काल खण्ड में
मैं हूँ उन ही पलों का शेष
जो फिर हुई शब्दों में जीवंत
बनाने तुम्हारी रचनाओं को अनंत
ख़्वाब में हुई थी
प्रतीत जो अवधारणा
यथार्थ में बनी वह मेरी प्रेरणा
ख्वाहिश तुम...