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कम्प्यूटर

कम्प्यूटर

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वह थरथराता हुआ खड़ा है,

उसकी आँखें फैली हैं डर से,

जबान तालू से चिपकी,

ये जो कुछ उसे हो रहा है,

कोई बीमारी है क्या ?


उन्माद की या इच्छाओं के,

दमन की बीमारी !

उसकी मानें तो वह,

किसी भी बीमारी से मुक्त है ।


उसने दिवास्वप्न भी नहीं देखे कभी,

न ही पाला भ्रम किसी प्रकार का,

कल्पना से वह कोसों दूर था,

जीता था हकीकत में,

कुछ उम्मीदों के साथ ।


फाइलें तो वह ऐसे निपटाता था,

जैसे कोई व्यापारी,

गिनता है नोट फटाफट,

गुणा, भाग, हिसाब में भी था,

सबसे अव्वल ।


उसकी कलम अभ्यस्त थी,

साहब के आदेश की,

वह नाचता था फिरकी की तरह,

साहब की टेबल से अपनी टेबल तक ।


फिर एक दिन,

आया कम्प्यूटर साहब की टेबल पर,

वह खुश हुआ,

अब हर बात पर नहीं बुलाते साहब,

उसे केबिन में, माउस घुमाते ही,

मिल जाती है उन्हें,

बहुत–सी जानकारी,

मिल जाता है उसे भी आराम ।


फिर साहब ने रखवाया,

एक कम्प्यूटर, उसके भी टेबल पर,

वह सिर खपाता रहा, पर न जाने क्यों,

उसकी उँगलियाँ, जितनी थी तेज,

कलम के साथ, साहब के इशारे पर,

उतना ही कुंद हो गया, उसका दिमाग,

माउस पकड़ते ही ।


आधी उम्र बीत जाने के बाद,

कम्प्यूटर सीखना नहीं लगता था,

आसान उसे,

तारीफों की जगह अब,

पड़ती है डाँट ।


पहले वह जितना उपयोगी था,

साहब के लिए,

अब उतना ही अनुपयोगी हो गया ।


अब साहब कुछ प्रगति और,

कुछ बदलाव के लिए,

उसकी कुर्सी पर, बैठाना चाहते हैं,

उस नये आये लड़के को ।


इस ‘कुछ’ का, जो हो रहा है,

उसके साथ इन दिनों,

कोई महत्व नहीं है ।


ये और बात है कि,

इसी ‘कुछ’ में बिखरे हैं, उसके सपने ।


वह थरथराता है,

नहीं कहता कुछ किसी से,

वह जानता है, इस कम्प्यूटर युग में,

उसके सपनों का, महत्व ही क्या है,

जिनके बिखरने को,

माना जायेगा बड़ी बात,

या सुनेगा कोई ध्यान से ।


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