हम।
हम।
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कितने उलझ गये हैं जमाने के डर से हम,
आकर सिमट गये हैं अपने ही घर से हम।
बढ़ते चले गये हैं गुनाहों के रास्तों पे ऐसे,
बिछड़े हुवे है हक की हर रहेगुजर से हम।
लब पे हमारे कुछ है दिल में हमारे कुछ है,
वाकिफ़ कितने हो गये हैं फने हुनर से हम।
हर फ़र्ज़ भुल बैठे सुन्नत को भुल बैठे,
बे खोफ जी रहे है अजाबे कबर हे हम।
सब छूटने लगा है आपस का भाईचारा,
गिरने लगे है अब तो रुत्बे बशर से हम।
खुदको बना दिया है इन्सानियत का खूनी ,
जीने लगे हैं मासूम अब जेरो जबर से हम