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मेरी ज़रूरत

मेरी ज़रूरत

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अपने थे
देना था  -
कुछ वक़्त, कुछ ख्याल 
लेकिन,
इस देने में मैं रह गया खाली 
हँसी भी गूँजती है खाली कमरे सी !
मैंने सबको बहुत करीब से देखा 
यूँ 
जैसे उसे देखने के सिवा कुछ नहीं है मेरे पास 
कभी समझ सको,
सोच सको तो देखना तस्वीरों में मेरी आँखें 
स्थिर,मृतप्रायः लगती हैं !
इसका अर्थ यह नहीं 
कि मैंने किसी को अपना नहीं माना 
देना नहीं चाहा 
.... 
दरअसल किसी को मेरी ज़रूरत नहीं थी 
मेरे ख्याल उन्हें परेशान करते 
मेरा वक़्त उन्हें बेमानी लगता 
उन्हें मेरी सामयिक ज़रूरत थी 
फिर भी 
दुनियादारी, समाज 
और मेरा मन 
… मैं देता रहा 
बुझता गया 
भीड़ में झूठ बनकर हँसता गया 
लेकिन आह,
मैं इस चेहरे की भाषा को कैसे बदलता 
आँखों को चुप करके भी 
बोलने से कैसे रोकता 
!!! 
इसीलिए 
न चाहकर भी 
तस्वीरों में मैं बुत ही नज़र आया 


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